ब्रह्माण्ड की सबसे महान प्रक्रिया कुण्डलिनी जागृत (kundalini shakti awakening) करने में सिद्धि के लिए खेचरी मुद्रा (khechari mudra) में सफलता जरूरी होती है। इसे खेचरी मुद्रा इसलिए कहते हैं, क्योंकि इस मुद्रा को सिद्ध करने पर हवा में उड़ने की शक्ति (ख मतलब आकाश और चर मतलब घूमने वाला) मिल जाती है। भगवान हनुमान जी को उनकी वायु में अति तीव्र गति से उड़ने की शक्ति की वजह से उन्हें सबसे बड़ा खेचर कहा जाता है। इस मुद्रा को करने से देवताओं के समान सुंदर शरीर और शाश्वत युवा अवस्था प्राप्त हो जाती है।
इस मुद्रा के सिद्ध होने पर जीभ पर अचानक बर्फ के समान ठंडा महसूस होता है। जीभ पर अवतरित हुए अमृत कणों की वजह से ऐसा होता है। यह अमृत जीभ की सूक्ष्म ग्रंथियों द्वारा शरीर में घुल जाता है और हमारे शरीर के संस्कारों को नष्ट करता है, फिर सूक्ष्म शरीर को सबल बनाता है और अन्त में स्थूल शरीर की सभी व्याधियों को नष्ट करते हुए स्थूल शरीर को वज्र के समान अभेद्य बनाता है। इसके बाद सिद्ध पुरुष स्वयं को अजर और अमर बनाने की प्रक्रिया की ओर बढ़ जाता है।
जीभ पर गिरे अमृत में एक अक्षर तत्व होता है, जिसकी वजह से इसका स्वाद अलग-अलग योगियों को अलग-अलग महसूस होता है। ये अमृत कण जब स्थूल शरीर में अपना काम शुरू करते हैं तो ये शरीर की हर कोशिका में घुसकर उसके नाभिक को जकड़ कर रक्षा कवच बनाते हैं, जिससे वो कोशिका अजर अर्थात व्याधि रहित होती जाती है।
खेचरी मुद्रा का तरीका
जीभ को उलटना और तालू के गड्ढे में जिह्वा की नोंक (अगला भाग) लगा देने को खेचरी मुद्रा कहते हैं। तालू के अन्त भाग में एक पोला स्थान है, जिसमें आगे चलकर माँस की एक सूँड सी लटकती है, उसे कपिल कुहर भी कहते हैं। इसी सूंड से जीभ के अगले भाग को बार-बार सटाने का प्रयास करना होता है। रोज-रोज प्रयास करने से कुछ महीने में धीरे-धीरे जीभ लम्बी होकर कुहर से सट जाती है।
खेचरी मुद्रा के लाभ
यह खेचरी मुद्रा मृत्युरूपी हाथी के लिए साक्षात् सिंह के समान है। साधक चाहे कितना भी अपवित्र क्यों न हो, किन्तु यदि उसकी खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है तो वह सभी अवस्थाओं में शुद्ध हो जाता है। जो योगी मात्र आधे क्षण के लिए ही इस खेचरी मुद्रा का अभ्यास करता है, वह पाप-महासागर को भी पार करके समस्त दिव्य भोगों का आस्वादन करता है। यदि उसे जन्म भी लेना पड़े तो पवित्र कुल में ही जन्म लेता है।
इस मुद्रा का उपदेश सभी को ( जिस-किसी को ) नहीं करना चाहिए; केवल सुपात्र साधक ही इसके अभ्यास का अधिकारी होता है। इस मुद्रा को बड़ी ही सावधानी से गोपनीय रखना चाहिए।